नदी तुम बहती क्यों हो
नदी तुम बहती क्यों हो
सागर से प्रीत जोड़कर
पहाड़ से पीठ मोड़कर
निरंतर निर्जन पथ पर
नदी तुम बहती क्यों हो ?
ऊंचाई से नीचे गिरकर
बार-बार गिर पड़कर
मनके समतल पठार में
नदी तुम बहती क्यों हो ?
पत्थर पर खुद घिसकर
महीन रेती पर पीसकर
कलकल निनाद करके
नदी तुम बहती क्यों हो ?
मेघों से भीख मांग कर,
हवा का हाथ थाम कर,
मीठा जल खारा करती
नदी तुम बहती क्यों हो ?
पर्वत से हाथ छुड़ाकर
बादल से पेंच लड़ाकर
पर्वत से जंग जीतकर
नदी तुम बहती क्यों हो ?
वनिता सी सज धजकर
अल्हड़ सी कल कलकर
भावों में कविता भरकर
नदी तुम बहती क्यों हो ?
आंखों से रोजाना रिसकर
बार-बार जीकर- मरकर
तोड़ पलकों के तटबंध
नदी तुम बहती क्यों हो ?
सभ्यता को सहेज कर
इतिहास को उकेर कर
आदिकाल से अनंतकाल
नदी तुम बहती क्यों हो ?