प्रकृति का प्रलय काल
प्रकृति का प्रलय काल
वासंती घूंघट ओढ़कर
प्रमुदित सुंदर कामिनी
द्वारे दस्तक देने लगी
अलसाई सुबह उठकर !
प्रफुल्लित कुसुम देख
हर्षित हो उठे भ्रांत भ्रमर
सहज गुनगुनाने लगे
प्रकृति के प्रणय गीत !
दिग दिगंत उत्सव सजे
वन उपवन खिल उठे
दुंदुभि बजाकर सुनाया
प्रकृति का प्रणय प्रसंग !
दरख़्तों में प्राण आए
शाखाएं लदने लगी
कलरव करते पंछी
घोसलों से निकल
पंख फड़फड़ाने लगे !
पारदर्शी नदियां बही
सूखते हुए किनारे
आँचल अपना फैला
सहमे सकुचे चुप रहे !
तितलियां उड़ने लगी
कलियां खुलने लगी
उत्सव के माहौल में
अमराई सी छाने लगी !
प्रिय का प्रस्ताव पाकर
निकल पड़ी नववधू
हाथ में कलश लिए
आंखों में काजल लगा !
अभिसार को आतुर
सौंदर्य की स्वामिनी
अमलतास की छांव तले
प्रतीक्षारत अपलक !
स्वागत द्वार सजाकर
नाच रहे मन के मयूर
लो फिर शुरू हो गया
प्रकृति का प्रणय काल !