नदी की कहानी,उसी की जुबानी
नदी की कहानी,उसी की जुबानी
हाँ, मैं नदी हूँ
अभिशप्त और प्रदूषित हूँ
सागर में मिट जाने
के लिए ही तो बनी हूँ
हाँ, मैं नदी हूँ
मेरी कहाँनी भी बड़ी अजीब है
ना कहूँ तो ही बेहतर है
फिर भी अपनी कहाँनी तुमको सुनाती हूँ
हाँ, मैं नदी हूँ
इस धरती पर मानवो द्वारा
कभी पूजी जाती थी मैं
बड़ी ही पावन और स्वच्छ थी मैं
स्वछंद विचरण भी करती थी मैं
पर,आज बड़ी ही दुःखी हूँ मैं
और,मानवो द्वारा बांध से
बंधी हूँ
हाँँ, मैं नदी हूँ
विभिन्न नामों से मैं
पुकारी जाती हूँ, कभी
कहीं मैं देवी रूप में पूजी जाती हूँ
मेरे ही तट पर कितनी
ही सभ्यताओं का उदय हुआ
उन सब का साक्षी मैं बन चुकी हूँ
हाँँ, मैं नदी हूँ।
