नारी व्यथा
नारी व्यथा
उसके शांत अजन्मे रुदन से
ईश्वर भी कंपकपाया था
जीवन का अंकुरण हुआ था
उसके अंतर में
पर बेटी जान जालिमों ने
मार दिया उसे कोख ही में
कुछ दिन तक उस अबोध
अजन्मी की माँ रोई थी
रही उदासी में खोई थी
यह कह कर उसे
चुप कराया गया था,
हम एक सभ्य सुशिक्षित समाज
के रहवासी है
हम एक ढर्रे पर चलने के
आदी है।
क्यों वो विद्यालय में
नन्हे कदमों से गयी थी
अकेले शौचालय में,
स्कर्ट उसनें पहनी छोटी थी,
साथ ना कोई सहेली थी,
रह गयी स्कूल बस में अकेली थी,
रात वो अंधियारी थी,
ऑफिस से वापिस में ना
मिली कोई सवारी थी,
कितने सारे बहाने थे
गुनाहों को छिपाने के
क्योंकि हम सभ्य सुशिक्षित समाज
के रहवासी है,
हम एक से ढर्रे पर चलने के आदी है।
आज के अस्मिता के लुटेरों से, तो
वो रावण ही अच्छा था,
जिसने लक्ष्मण जी के आवेश का उत्तर
केवल आवेश से दिया था,
उसने सीता जी के तन को कभी ना छूआ था
पर हम, हम तो सभ्य सुशिक्षित समाज के
रहवासी है
हम एक से ढर्रे पर चलने के आदी है।
देखो, पिता जी ने सुंदर ब्याह का
मंडप रचाया है
बस कार का माडल वो नहीं है
जो जमाई जी ने मांगी है
केश डिमांड भी रकम थोड़ी बाकी है
आगे फिर बिटिया बेचारी
दोहरी जिम्मेदारी में पिसती जाती है
क्या हुआ जो कल
अखबारों में सुर्खी आई हैं
दहेज के लिए, फिर
एक बेटी जलाई गयी है
सड़कों पर हम आएंगे दोबारा
लेके मोमबत्तीयों का सहारा
क्योंकि हम उस सभ्य सुशिक्षित समाज के
रहवासी हैं
एक से ढर्रे पर चलने के हम आदी है।
नारी तेरी व्यथाओं का अंत नहीं है
पर तेरी क्षमताएं भी तो अनंत है
एक तरफ सृष्टि निर्माता भी है, तो
दूजी ओर चण्डी बन कर विनाश
लीला रचाती है.
सारा संसार तेरे आंचल में समाया है
हजारों मुश्किलातों के साथ भी
तूने हर क्षेत्र में परचम अपना लहराया है।
