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धुंध

धुंध

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उस दिन धुंध ही धुंध थी

नदी भी हिम बनी हुई थी

हर एक पेड़ शीत के निद्रा में

पत्ते अधिकतर झड़ चुके थे

इक आग जो जलाई तुमने

मैं और सब झड़े चुके पत्ते

जल उठे उस अग्नि में

धीरे-धीरे एक उष्णता फैली

चारों ओर हमारे

प्रेमहीन ह्रदय में भी शायद!

एक अग्निशिखा तीव्र 

उस पहचाने से चेहरे की

वो ठहरी हुई आँखे

आँख से आँखों तक...!

किसी ने कहा था शायद,

मांस जले तब बेहतर

किसी ने कहा,

ले आओ बकरा 

ज़िब्ह करें सब मिल

कर इस ठंडी रात में

सिहर गई थी मैं

पहचाने मनुष्यों के स्थिर आँखे

एक-दूजे को ज़िब्ह करने की

कहानियों को दुहराते!

जाने किसने किसे क़त्ल किया

जाने कौन ख़ुद की बली पर ख़ुश हुआ

वो साँवली सी छोटी लड़की भी

किसी के नज़र का शिकार हुई

दिल नहीं मिले उस दिन

सिर्फ़ ज़िस्म की आदम गंध ही फैली उस रात!

पद्दमा नदी दूर से ही देख रही थी

उसके ठंडे ज़िस्म पर

बूंद-बूंद जमते पसीने को !!


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