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Kaberi Roychoudhury

Abstract

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Kaberi Roychoudhury

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जातिस्मर

जातिस्मर

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शायद उस दिन हम दोनों कहीं मिले थे

हम पास आकर भी कुछ कदम की दूरी पर रुक गये थे

हम दोनों शायद धुंध से घुले आकाश को देख सोच रहे थे

हम दोनों कहां जाकर मिल पाएंगे

हम दोनों, हम दोनों....

सुनो ना ! अब और नहीं सोच पा रही हूँ

सती के शरीर की तरह बिख़र गई हूँ चारों तरफ़

सुनो ना !

मेरे नाम क्या कोई शक्ति पीठ कभी निर्मित हो जाए ?

सती की तरह नहीं बनना मुझे, तुम्हें तो पता है...

सतीत्व मेरे लिये नहीं !

नाभिकिये प्रदेश में जो गहरी नदी बनाई ईश्वर ने

वो नदी कलकल करती बहती है समुद्र से मिलने

तभी, एक दिन तू, हे नव किशोर

तूने कहा,

तुममे ही प्रेम मेरा, कहां किस जन्म का, हां, तुम्हारे नाभि मूल में ही

वो जो बह गया था मैं

आज भी गहरी गहराई....!

तुमने कहा,

ओ नव युवक, तुमने कहा, समझ रहा हूँ, तुम्हें ही चाहा है मैंने

साल दर साल

यकीन करो, मेरी आंखों में देखो

सपनों की नाव लिये मैं

उस नाभी के गहरे जल में

जब उतर गया, उसके बाद

मैं भटक रहा हूँ उसी गहरे जल में

भंवर में अटकी है मेरी नैया !

तुमने कहा था, हे प्रवीण तरुण, तुमने ही,

जाने क्यों ह्रदय में एक अनदेखा भय है मेरे, बताओ तो क्यों?

क्यों सुकून नहीं मुझे ! बैचनी समझते हो?

समुद्र के ह्रदय में पंख लगे हों जैसे

और आकाश में चारों ओर जलधारा

जाने कौन उड़ा जा रहा, जाने कौन

मुझ में मैं ही अब नहीं रही

सुनो ना

नव यौवना तुम बताओ, बताओ न केवल एक बार बताओ

तुम कौन हो? कौन हो तुम?

धुन्ध में उलझ गई हूँ मैं

आहिस्ते-आहिस्ते मैं

धुन्ध होती जा रही हूँ

जन्म-जन्मांतर से

मैं जाने कौन थी? किसकी थी ?

जाने किसके आँगन में सुबह सवेरे

रंगोली बनाई मैंने

जाने किस आँगन में संध्या आरती की

जाने कब सज़दे में झुकी हूँ कहीं

घाघरा पहन घूमर नृत्य जाने कौन देश

अविराम चर्चा की काव्यत्मक नाटकों पर जाने किसकी साथ

जाने क्या क्या हो सकता....!

इतनी दृष्टि मुझ पर ही क्यों....

मैं जाने कब, किसकी और क्या थी?

आहिस्ते-आहिस्ते मैं विलीन होना

चाहती हूँ अपने ही नाभिकिये जल में

वहीं जहां डूब गए तुम सब

और भंवर से निकल न पाए

हमने पुनर्जन्म लिया है

हम हैं जातिस्मर


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