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मौन

मौन

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बहुत थक गयी हूँ मैं,

बड़ी बनते-बनते

तुम आ कर मुझे,

समेट लो बाँहों में…

छिपा लो मुझे,

अपनी गोद में…

वैसे ही, जैसे बचपन में,

तुम्हारी गोद में लेट कर,

मैं भूल जाती थी दुःख-सुख…

एक मौन आश्वासन देती थी तुम,

“कि मैं हूँ ना, फिर कैसी चिंता”

अँधेरे से अब डर नहीं लगता,

फिर भी तुम्हारे आँचल की रौशनी को,

कस कर थामना चाहती हूँ…

मेरी धरा और आकाश,

सब तुम्हीं तो थी…

तुम्हीं से शुरू, तुम्हीं पर ख़त्म होती थी,

मेरी उड़ान…

आज उड़ कर,

बहुत दूर आ गयी हूँ…

उस नीड़ से

इस नीड़ तक

तिनका-तिनका जोड़ती रही…

हर तूफ़ान को मोड़ती रही...

मगर अब, बहुत थक गयी हूँ…

आज फिर,

बहुत याद आ रही हो…

कहाँ ढूँढूँ तुम्हें…

कहाँ हो तुम माँ?


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