ज़द स॓ जिद तक
ज़द स॓ जिद तक
नाचीज हूँ क्या चीज दूँ
तुझ॓ मैं त॓र॓ प्यार में ।
मुद्दतौ समय लगा,
इश्क-ए-इज्हार में ।
तु क्या है ?
हुश्न-ए-परी हे तु किसी जहान की ।
कद्र तक ना समझी,
तुमनें दिल-ए-जान कि।
सब्र कर और भी,
बडे हैं इस दौर में ।
मल्लिकाये हुश्न नहीं तू
ना दिलौं का चोर मे।
बहुत हुआ अब और नही,
ये प्यार व्यार हमसे होगा।
माना हमें भी लत थी इसकी,
वो वक्त कुछ और होगा।
उसने हमें छोड़ा, हमनें प्यार को,
और कर बैठे खुद से रुसवाई।
वक्त जैसी फितरत थी उसकि,
ना ठहरी ना हाथ आयी ।
सोचकर हँ स देता हूँ कभी- कभी,
की कैसी थी वो हरजाई।
उस दिन से ना वो दिखी,
और ना उसकी परछाई।