नारी त्याग की मूर्ति...!
नारी त्याग की मूर्ति...!
लाख दर्द सहती है वो
फिर भी सदा मुस्कराती है
आंखों में आंसुओं को रोक
वो हर गम को छिपाती है।
बचपन की यादों को छोड़
एक नया घर वो बसाती है
अनजान पुरुष संग रहकर
जीवन उसका संवारती है।।
क्षमता में न बंधती कभी
कमजोर भले वो कहलाती है
हर क्षेत्र में बढ़ चढ़ कर वो
लोहा अपना मनवाती है।
चुनती है अपनी डगर कठिन
कांटों पर चलती जाती है
निडर बेखौफ आगे बढ़ कर
मंजिल अपनी पाती है।।
पहचान है वो इस धरा की
आधार स्वयं बन जाती है
ना मोह है न स्वार्थ है उसे
वो मुस्कान सबकी बन जाती है।
नारी है वो
महान जो
हर वक्त के साथ ढलती जाती है
सावित्री बन कर प्राण सदा
यमराज से भी हर लाती है।।
नर भक्षियों के भीड़ में वो
द्रोपदी सा दुःख सह जाती है
दुर्गा रूप धरकर वो
चामुंडा भी बन जाती है।
शक्ति हीन न समझो उसको
दोधारी तलवार वो बन जाती है
अपने अधिकारों के लिए सदा
समाज से भी लड़ जाती है।।
वो नारी त्याग की मूर्ति
कभी लक्ष्मी बन जाती है
क्षमता विस्मयकारी है उसकी
वो स्वयं प्रतिकार ले जाती है।
वो स्त्री है कभी शेरनी सी
ममतामई मां भी बन जाती है
कभी कठोर कभी नाजुक सी
अनेक रूपधर जाती है ।।