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रिपुदमन झा "पिनाकी"

Tragedy

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रिपुदमन झा "पिनाकी"

Tragedy

नारी मूर्ति नहीं इन्सान है

नारी मूर्ति नहीं इन्सान है

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कहां चला किस ओर चला है अपना सभ्य समाज।

दशा देख कर आज देश की आती मुझको लाज।।


बहन-बेटियों की अस्मत का मोल हुआ यहां सस्ता।

आते-जाते कसे फब्तियां और कोई टेके रस्ता।।


नगर गली गांवों कस्बों में नहीं सुरक्षित नारी।

पुरुष बना है गिद्ध भेड़िया पशु सा धूर्त शिकारी।।


बोटी - बोटी नोच बदन का यह पापी खाते हैं।

हाड़ मांस के पुतले में जाने क्या सुख पाते हैं।


तार - तार करते हैं हर दिन औरत की अस्मत को।

और जला देते जीते-जी मारते बदकिस्मत को।


नारी भी नारी होने की रोज़ सज़ा पाती है।

लुटती है हर रोज़ बिचारी और मरी जाती है।।


दुर्गा, काली, सरस्वती का रूप कही जाती है।

पर दुष्टों के दुष्कर्मों से कहां ये बच पाती है।।


एक छलावा बनकर रह गई इस धरती पर नारी।

सदा भोग की वस्तु रही है बस औरत दुखियारी।।


अपनी मां के कोख को करते हैं दिन-रात कलंकित।

इनके बदले बहन-बेटियां होती आईं लज्जित।।


शान से घूमे करतूतें कर यह पापी इन नगरों में।

और सज़ा पाती घुट घुट कर बंद पड़े कमरों में।।


रेप की सज़ा बस फांसी हो और न कुछ भी मांगे।

भरे शहर में चौराहे पर हर दुर्जन को टांगे।।



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