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Geeta Upadhyay

Abstract

5.0  

Geeta Upadhyay

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नारी कहलाती है

नारी कहलाती है

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तेरी एक मुस्कान पत्थर

दिलों को भी पिघलाती है

तू हर आंगन में किरण

बनकर छा जाती है 


तू क्षमा दया त्याग

ममता अनुराग की

परछाई नजर आती है

धरती सी सहनशीलता लिए

हर दर्द सह जाती है


इतनी पीड़ाओं में भी

सुख जाने कहां से लाती है 

कुछ संकुचित सोचे पुरुषों से

तुझे निम्नस्तर बनाती है


बराबरी का दर्जा देने पर

उनके अहम पर चोट आती है

सदियों से भेदभाव जताती है 

अपनी छोटी मानसिकता बताती है 


हैवानियत की सभी

हदें भुलाती है

सब कुछ सह कर भी

तू हर बंदिशें तोड़कर

दिखलाती है 


पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर

अपने सब कर्त्तव्य निभाती है

असंभव को भी संभव करके दिखाती हैं

अपने आंचल में सारा संसार समाती है

मां बहन बेटी प्यारी औरत जननी स्त्री महिला।


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