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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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जिज्ञासा

जिज्ञासा

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हमारी जिज्ञासा हमसे बात करती है

सोचती है, सवाल करती है

उत्तर देती है

गुनगुनाती है हमारी तरह।


आजकल हवा में उड़ रही है

सैर कर रही है आकाश का

और वहीं से हमारा संवाद चल रहा है


कह रही है

शब्द उड़ रहे हैं आकाश में

जैसे प्रेम,स्नेह

ममता, वात्सल्य

उल्लास, उमंग

शब्द उड़ रहे हैं आकाश में और

मस्त हैं अपने आप में।


खुश हैं जिज्ञासा के साथ

उम्मीद से लबालब

धरती पर उतरने के लिये

जिज्ञासा के साथ साथ।


जिज्ञासा उड़ान पर हैं

शब्द उससे मिलकर बेताब हैं

धरती पर उतरने के लिये।


आदमी का ही तो संसार है ये धरती

तरह तरह के आदमी

तरह तरह का संसार

अभाव तो है उसके संसार में

आकाश में उड़ते हुए शब्दों का।


हम तो खुश हैं

आनन्दित हैं

शब्दों की धरती पर उतरने की

बेताबी की तरह।


कोई कुछ भी कहे

हमारी जिज्ञासा आयेगी

हमारे संसार में

आकाश में

उड़ते हुये शब्दों के साथ।


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