म्यांर
म्यांर
पत्तों की तरह
बिखरती ज़िन्दगी से
सिमटती हुई आरजुओं ने
यह पूछ लिया साहिब!
वो कौन सी खुशी है
जो इन अधरों पर अटकी है
वो किसकी सांसें है जो
इन बोलो में बसती है
वो कौन सा म्यांर है
जो यहां आकर ठहरता है
वो कौन सी रोशनी है
जो इन अंधेरों से
पार होकर गुज़रती है
वो कौन सी मुस्कुराहट है
जो इन सुर्ख़
गालों पर फबती है
वो कौन सी घटा है
जो इन ज़ुल्फ़ों में बसती है
वो कौन सी आफ़त है
जिसको मुहब्बत कहते है
कहने वाले तो तेरी
हर अदा को क़यामत कहते है
मैं मुन्तज़िर हूँ किसका
यह याद नहीं मुझ को
कुछ याद जो रहा है
वो बस एक तू है मुझ को....
