खुली आँखों से .....
दीदार ना हुआ उसका ,
तो मूंद पलकें उसे ,
ढूंढ लिया जैसे - तैसे |
कोई फर्क नहीं .....
खुली य़ा बंद पलकों का ,
इश्क अपना इतना बेगैरत ,
जो मुड़ जाए ऐसे या वैसे |
वो ख्वाबों में आकर भी ,
जब करे शरारत ,
ये ज़िस्म सिमट कर ,
उसे मन की व्यथा कहे कैसे ?
टूटा - टूटा सा ये बदन ,
तब खाये हिचकोले ,
उसकी प्यास में और तड़पे ,
जल बिन मछली जैसे |
उसका साथ बना अब ....
जीने की एक वजह ,
उसे कैसे जाने दूँ ?
वो बसा पलकों में ऐसे ||