मुर्दाघर
मुर्दाघर
मुर्दाघर है ये दुनिया
मुर्दे, मुर्दे...मुर्दे
हर तरफ मुर्दे
चलते-फिरते मुर्दे !
मगर क्यों...?
हाल ये है -
धर्मनिरपेक्षता के अधर्मी मुर्दे
राजनीति के अराजकीय मुर्दे
मोटे-मोटे दबोचे बैठे हैं
छोटे-छोटे असहाय मुर्दों को
ऊपर से ये कोरोना भी
जबड़ा कसे बैठा है
अजगर सी गेंडुली मारे
माना कि मुर्दाघर का
कोई धर्म नहीं
कोई जात नहीं
फिर भी...
नीति का
नियम का
अधिकार का हक़ तो है
दो गज ज़मीन की तलाश तो है
जहां वह रह सके सुकून से
मगर होती है
चीर फाड़ अरमानों की
खरीद फरोख्त जज़्बातों की
राम के सेवक रहीम से
ख़ुदा के बंदे राम से
तकरार करते हैं
ईश्वर के भक्त
अल्लाह के मुरीद
दोनों हैं बेकरार
अपने अपने करार की ख़ातिर
इक दूजे को बेकरार करते हैं
कैसे हैं ये मुर्दे !
मुर्दाघर को ही नोचा-खसोटा
दीवारों में सेंध मारी
दरवाजों को दीमक खा गई
खिड़कियों की सलाखें मरोड़ी
स्ट्रेचर को दूर धकेला
कफ़न भी ले उड़े
खुद को सर्वेसर्वा
समझने वाले
अब ये न जल पाते हैं
न दफ़न हो पाते हैं
बस हर तरफ है स्वार्थ की
सड़ांध ही सड़ांध
केवल अपनी रोटी
सेंकने वालों का
होता है हाल यही
अभी वक्त है -
एकजुट होकर भगाओ कोरोना
अपने घर को निर्मूल कर दो
इस नामुराद कोरोना से
तब खुद-ब-खुद
मुर्दाघर बन जाएगा घर !