मरीचिका
मरीचिका
है काँच की हिमाकत, या बिंब नस्तरी सी,
या मुहर ही जिया पे जहर कर गया है |
सरेआम यादों की तस्करी हो रही है,
तिलिस्म ये तेरा असर कर गया है |
हकीमों के वश की बात नहीं ये,
लहू कोई मैला सिंदूर बन रहा है |
दुआओं में जितनी मरहम लगाती हो,
जख्म उतना ही नासूर बन रहा है |
शह की बिसात सह सह कर,
देहद्रोह का क्या ही अंजाम हो |
अर्जी की तोल-मोल करूँ भी कितनी,
जब कोतवाली ही तेरी गुलाम हो |
दस ताबीज़, नगीने जड़े उँगल में,
पर सपनों को तेरी लत हो गयी है |
मीठे आँसू मुस्काता रहता हर पल,
अपनों को मुझसे आफत हो गई है |
खता नहीं तो ईशारों के खत समेट लो,
हमारी खुदी का खुतबा रिहा हो जाए |
दर्द की घुट घूँट लेंगे हम,
बस तेरा चेहरा सीने से जुदा हो जाए |