मृगतृष्णा
मृगतृष्णा
एक वक्त गुजर गया है
कर्तव्यों को निभाते
एक शोर में
अपनी आवाज दबाते
एक पुल बन
पैरों से कुचले जाते
एक नए दिन के साथ
थोड़ा और सिकुड़े जाते
पुरुष को तो
अश्रुओं की शीतलता
भी नहीं मिलती
सतत संताप में मात्र
एक आशा है होती
कभी कहीं किसी
मोड़ पर शायद
कोई तरु दिख जाये
जिसकी छाया की ठंडक में
दो पल का विश्राम
मिल जाये
शायद कोई कोयल
तरु पर आ जाये
दो पल के लिए सही
कानों को शोर नहीं
कोई गीत सुना जाये
इतना भी पर्याप्त होता है
लम्बी यात्रा के लिए
चलते रहने को
अपने कर्तव्य पथ पर
अनवरत .......