मंज़िल
मंज़िल
किस कशमकश में जी रहा हूँ मैं ,
न राह का पता न ही मंज़िल का।
उलझनों का सैलाब है, अड़चनों का बाज़ार
न सांसे चल रही है न धड़कने मचल रही है।।
मेरी ख़ुशियाँ तो जैसे मुझसे दूर जाने को तरस रही है
मेरी सांसों को नीलाम करने धड़कने भी मचल रही है।
दिल भी गुमसुम है इस तरह आँखें नम है
यो न तोड़ो मेरा दिल मेरे दिन बहुत कम है।।
