मंथन।
मंथन।
दीपक चाहे लाख जला लो, अंतर तम ना मिट पायेगा।
चाहे जितना ध्यान लगा लो, सोया राम ना जग पायेगा।
बाहर दीप जलाए कितने, उन्हें राम की जीत बताया।
अंतर में जो बसा अंधेरा, उसे प्राण का मीत बनाया।
सोचो इन दीपों से कैसे, मन आलोकित हो पायेगा।।
हर दीपक के तले अंधेरा, दूर दूर तक कहाँ सवेरा।
अंतर के अंधे झुरमुट में, राग, द्वेष कर रहे बसेरा।
पल पल स्वांग रचाने वाले, सच्चा मार्ग ना मिल पायेगा।।
शान्ति-शान्ति की बातें करते शान्ति- दूत सब भटक रहे हैं।
मन के हाथों सब सूली पर, कूद- कूद कर लटक रहे हैं।
जब तक अंतर शांत ना होगा, यह जग शांत ना हो पाएगा।।
एक प्रेम की बूंद पान कर, अमृत मंथन करना सीखो।
कुंदन बनने से पहले तुम, प्रेम ज्वाल में जलना सीखो।
सत्यमेव नवनीत छलक कर, निश्चित ऊपर आ जायेगा।।
नर -हरि शरण में आना सीखो, आकर फिर तुम जीना सीखो।
अपना अंतर भेट चढ़ा कर, नित्य सुधा- रस पीना सीखो।
प्राणों के मधुबन का कोकिल, मीठे गीत सुना जायेगा।।