मंज़िल..दिल
मंज़िल..दिल


चलते चलते अब थक गया हूँ मैं
मंज़िल तो अभी कोसों दूर है।
अतीत के गहरे ज़ख्म अब तक सूखे नहीं
उनपर सहानुभूति का मरहम लगा रहा हूँ।
यादों का कारवाॅं तो संग चलता रहेगा
जुदाई के पल मन की थकान बढ़ाती है।
वो तो मंज़िल है मेरी, जीने की आरजु है।
फिर भी क्यूँ लगता है वो उम्मीदों से परे है।
थोड़ा रुक जाऊँ, थोड़ा संभल जाऊँ
थोड़ा दिल को छोड़कर व्यवहारीक बन जाऊँ
ऐसी बातों में दिल तो नासमझ है।
सताना, मनाना में मगर उसी की गरज है।
दिमाग का हिसाब इसको न लागू होगा
अतीत का दामन पकड़े मैं तो चलता रहूँगा।
जबतक प्राण शरीर में सांसों की कसम
ये फासले, ये दुरीयाँ मिटा के रहूँगा ।
प्यार उसके दिल में जगाकर रहूँगा।