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SURYAKANT MAJALKAR

Abstract

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SURYAKANT MAJALKAR

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चार दिन की चाँदनी

चार दिन की चाँदनी

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जब भी घर से निकलें, अपने शहर से निकले,

खुब नज़दीक आकर,वो दूर के निकले।

सज़ी थी महफिल चार दिन चाँदनी थी,

रातें बड़ी रंगीन थी, मगर कमसिन थी।

निग़ाहें शर्मसार है आँसुओं में डुबी हुई,

क्यु न मिल पाएँ दो,बात जब दिल से निकले।

लगता है समझ पाया इंसाँ को अब इंसाँ,

हल वही है, बात तेरी निकले या मेरी निकले।


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