मन
मन
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बह कर भी रुक गए अल्फाज़
आज फिर कुछ कह ना सके
ना तुम्हें देख कर जी सके
ना तुम्हें छोड़ मर सके।
कितनी ही तन्हा रातों में
यूं बैठे हम हो गुमराह
ना तुम से कुछ कह सके
ना अतिश पी सह सके।
शायद ही कोई सवेरा होगा
जो तुम्हारे बगैर जगा होगा
शायद ही कोई शाम
तुम्हारे खिलाफ ढली होगी।
आज फिर तुम्हें याद कर
अपने आप से कह दिया
तू मेरा नहीं, ना मैं तेरी
और यूं ही मन बहला लिया।
पर फिर भी सीमा लांघ
ख्वाहिशें याद दिलाती हैं
की ना तेरे बिन जी सके
ना तुझे छोड़ मर सके।