मन व संतुष्टिद्रविण कुमार चौहान
मन व संतुष्टिद्रविण कुमार चौहान
न मिले मन से संतुष्टि तब तक
मन इधर-उधर भागता रहता है
न जाने किसे और किसकी
तलाश में भटकता रहता है
कभी चंचल तो कभी उदास,
रहता है
मन यूं ही भटकता रहता है
न जाने कब तक भटकेगा
यूं ही कइयों सवाल मन में
चलता रहता है
कुछ पल ठहरता है फिर
निकल पड़ता है
जिस धार की हवा लगती है
उधर मन बहकने लगता है
उसी उधेड़ बुन में कइयों
दिन तक लगा रहता है
कभी खुद को उसमें नायक
के तौर पर देखा है तो
कभी-कभी दूर-दूर तक खुद को
कहीं नजर नहीं आने देता है
यह चंचल मन न जाने क्यों
और कैसे कहां कहां भटकता
रहता है, ना मिले मन से संतुष्टि
तब तक मन इधर-उधर भागता
रहता है, जब पूरी हो जाती है
एक काम तो फिर तलाश शुरू
कर देता है, मन ना जाने कब
कहां किस हाल में पहुंच जाता है
कभी आनंद की सागर में डुबकी
लगाता है, तो कभी रेत से भरी
मरुस्थल का भ्रमण करता है
कभी-कभी सर्द मौसम में भी
जेष्ठ माह का एहसास कराता है,
तो कभी-कभी तपती धूप चली
चलाती बैसाख जेठ माह में सरद ऋतु का आनंद दिलाता है,
गांव के पेड़ के नीचे बैठे शांति का
आनंद अनुभूति कराता है
एवं साथ में गांव की भिन्न-भिन्न
कहानियों से अवगत कराता है
एक जगह बैठे-बैठे न जाने
संसार में कहां तक ले जाता है
मन की गति को कोई सीमा नहीं
पर तन क्या करें जब तक ना
मिले मन से संतुष्टि,
तब तक मन बहता फिरता है
न जाने कहां कहां का
दर्शन करता है,
कभी पल भर में संसार का
भोग करता तो कभी किए गए
गलती सही का नाप तोल करके
दोष गुण से हमें अवगत कराता
है, मन है जहां मन आए ले जाता
है , जो मन चाहे वही प्रदर्शित
करता है मन मंजिल है बस धैर्य
अपनाना है मन की घोड़े को
लगाम लगाना है अपने लक्ष्य के
तरफ अपने को ले जाना है
बाकी सब मन की मर्जी,
मन की घोड़े को लगाम लगाना है
संतुष्टि मिले ना मिले अपने
मंजिल तक जरूर जाना है
