मन की व्यथा
मन की व्यथा
ए मन तू कहाँ कहाँ भटकता है
क्यों इतना विचलित रहता है
आँखों से क्यों नींद उडाता है
क्यों चेहरा बिन बरसात भिगोता है
क्यों मस्तिष्क को अपना सताते हो
क्यों तन की स्वतंत्रता को छीनते हो
क्यों जज़्बातों को सहलाते नहीं
क्यों उनका खनन बार बार करता है
दिल बस एक कोरा पन्ना है
सोच एक उलझी -सुलझी लेखनी
मन की व्यथा संजोकर रखो
क्यों चलती लाशों को हाल बताता है
दिल में जो ख़्यालात बसाये है
उन्हें खुलकर जीना पड़ता है
जो दिल और रूह को मिलाना हो
पड़ता खुद को ही खुद से जिताना है