मलंग
मलंग
जज़्ब है समंदर पर अंदर कुछ खाली है
मेरे उस महबूब की बस यही अदा निराली है
कहता मलंग मुझे और धूनी खुद रमाता है
देखने वालों को पागल ही नज़र आता है।
कहता है बेख़्याली और
होश भी उसको रहे
ऐसे बेदर्दी का दर्द कोई
किस से कहे।
न तो मैं उसका हूं
न ही वो मेरा है
फिर भी मेरी साँसों में
उसका हरसू पहरा है।
वो नज़दीक भी आता नहीं
और दूर भी जाता नहीं
कौन सा रंग अंदाज़
उसका कहूं मैं
जो मुझे भाता नहीं।
मैं मन का मलंग
दिल उसकी धुन में मलंग
दोनों मलंग ऐसे है
जिन्हें कुछ नज़र आता नहीं।

