मजहब
मजहब


नफरत का तीर ऐसा अपना काम कर गया,
मजहब ही रहा जिंदा बस इंसान मर गया।
कैसे मैं मिटाऊँ उसे, हर दिल की सोच है,
बेईमानी हर एक ओर है ईमान मर गया।
वो देखो आग फैल रही कितनी तेज़ी से,
रोका था बहुत फिर भी धुँआ घर में भर गया।
हल कोई तो हो साँसें घुट रही हैं प्यार की,
>रहता था जिसमें हाय ! वो, दिल वो भी जल गया।
आसार कयामत के लग रहे हैं क्यों भला,
कण-कण में बसने वाला वो रब भी किधर गया।
इंसानियत और प्यार को ले आओ ढूंढ कर,
इस वहशियत से अब सभी का दिल है भर गया।
इन टूटती दीवारों को गिरने से बचाओ,
वरना रहोगे ढूंढते के घर किधर गया।