मजदूर
मजदूर
हमारे जगने से पहले जो चले जाता हैं
हाथ मे हथौड़ा कुदाल अपना ले लेता हैं
नही चिंता उसको शरीर अब अपने
हवा धूप को हँस के बस सह जाता हैं
उसके हाथों रईसों के इमारत कितनें बनें
राजाओं के महल और ईबादत कितने गढ़े
जिसकी पत्थर अमीरी की गाथा सुनाती
पर गढ़ने वालों की कोई बात ना करती
जो डालता हैं नींव किसी भी आधार का
जिस पर खड़ा होता भार ज़हान का
मग़र उसको इतिहास विस्मृत कर देती हैं
क्योंकि मालिक नही ओ तो मजदूर होता है
नहीं चाहिए नाम उसको ताज़ के निर्माण का
ना चाहता अंकित हो नाम उसके दीवाल का
ओ बनाता इमारत पुल सड़क पेट के लिए
ना करता ख़ुदा से कामना ही निर्वाण का
सबकें सपने हकीकत में बदलता हैं वो
गगन तक इमारत को पहुचाता वो
पर गगन औ ज़मीं उसको अनदेखा करती
मालिक नहीं आख़िर मजदूर होता हैं वो।