मज़दूर क्यों मजबूर
मज़दूर क्यों मजबूर
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वो लोग जो बेचारे हैं, किस्मत के मारे हैं,
जिनको दो वक्त का खाना खाने के लिए,
नौ घंटे पसीना बहाना पड़ता है,
एक घंटे चौराहों पर खड़े होकर,
खुद को मजबूत दिखाना पड़ता है।
ऐसे लोग जब पढ़े-लिखे लोगों से मिलते हैं,
उनको देखते हैं। फिर क्या-क्या सोचते हैं?
सोचते हैं कि शिक्षा कितनी अच्छी चीज़ है,
जो मिटा सकती है फ़ासला मजदूर व मालिक का,
जो दूर कर सकती है अंधेरा उनकी झोपड़ियों का,
जो बना सकती है उनके बच्चों की जिंदगी,
जिससे उनको लाना नहीं पड़ेगा अपने साथ,
इन्हीं चौराहों पर, बेबस लाचार, मजदूर बनाक
र,
जहां से बाप और बेटे को दो अलग मालिक,
खरीदते हैं, मोलभाव करते हैं,
और चल देते हैं अपने साथ बिठाकर,
कभी अपनी कार में, या फिर स्कूटर पर।
दिहाड़ी जो भी पाते हैं, कई बार हिसाब लगाते हैं,
रोटी, कपड़ा, और मकान, बच्चों के खिलौने,
और बाकी ज़रूरी काम!
किस बच्चे को पढ़ाएं? किसे साथ ले जाएं?
"बेटा-बेटी एक समान" के फार्मूले को अपनाएं?
"शिक्षा सबका मूल अधिकार" को सफल बनाएं?
या आटे-दाल का भाव देख पीछे हट जाएं?
इन्हीं सब उधेड़बुन में रहता है हर मज़दूर,
जिंदगी उन सबको कर देती है मरने को मजबूर।