मैं समाज हूँ
मैं समाज हूँ
बेटी मैं समाज हूं
अपराध नहीं है तुम्हारा बेटी होना।
मैंने ही तो तुम्हें सदियों से बेटी बनाया
जब जन्मी थी तुम तो सिर्फ इंसान ही तो थी
मैंने तुम्हें बेटी बनाया ।
मैं समाज हूँ बेटी
तुम्हें बेटी होना भी तो मैंने ही था सिखलाया ।
करवाया हर पल एहसास तुम्हें बेटी होने का
मैं समाज हूँ बेटी
मैंने तुम्हें कभी बेटी
तो कभी बहन तो कभी मां बनकर
जीना-मरना सिखलाया।
हर बात का दोषी हर बार तुम्हें बनाता आया
अपनी कमजोरियों को उसके भीतर छिपाता आया
मैं समाज हूँ बेटी ।
सभ्यता और संस्कृति के छद्म आवरण में
मैंने तुम्हें चुप रहकर सब सहकर,
घुट घुट कर, हर पल मरना सिखलाया
मैं समाज हूँ बेटी
मैंने ही तो तुम्हें आज अपराधी बनाया।
शिक्षा तुम्हें उचित मैं दे न सका
सुरक्षा तुम्हें उचित मैं दे न सका
सम्मान तुम्हें उचित मैं दे न सका
अधिकार तुम्हें उचित मैं दे न सका
मैं समाज हूँ बेटी।
अगर जो तुम्हें भी बचपन में नाना मिलते,
अगर जो तुम रानी होती,
तो तुम भी सिर्फ लक्ष्मी नहीं
सन सत्तावन की लक्ष्मी बाई होती।
कभी देवी बना के पूजा
कभी अस्मत को भी लूटा
कर वादा दिन रात तेरी रक्षण का, संरक्षण का।
हमने ही तो रौंदा तुम्हें।
बेटी मैं समाज हूँ।
कभी संस्करों के नाम पर
कभी संस्कृति के अभियान पर
कभी कर्त्तव्यों के दाम पर
तुझे मैंने जलते देखा
तेरी अस्मिता को मिटते देखा।
बेटी मैं समाज हूँ।
जिंदा थी तो सुध तुम्हारी मैं कभी ले न सका
सुरक्षित समाज तुम्हें कभी दे न सका
तुम्हारी चिता को भी सम्मान कभी दे न सका
अब इंसाफ दिलाने आया हूँ
काली सैकड़ों पर रोशनी लेकर
खुद को जिंदा कहने को
बेटी मैं समाज हूँ।
जिंदा तुम जलती रही।
हर दिन तुम लड़ती रही
खुद को इंसान कहती रही
मैं अंधा बेहरा गूंगा था और खुद को जिंदा कहता था।
बेटी मैं समाज हूँ।
फिर कहता हूँ बेटी
तुम्हारा बेटी होना कोई अपराध नहीं।
हमने तुम्हें अपराधी बनाया है
इसान छोड़ कर हर रूप तुम्हारा
तुम्हें समझाया है बेटी
मैं समाज हूँ बेटी
मैं ही समाज हूँ।