मजबूरी
मजबूरी
मजबूरी से मजबूती तक
बचपन,जवानी और बुढ़ापा तक
हर हाल में मजबूर हे हर कोई
छुपाता कोई तो जताता कोई।
कभी बचपन के सुनहरे दिन खो गए
मजबूर नन्हे हाथ पैसे कमाने लगे।
कभी जवानी के दहलीज पर आ कर
रुक गए जो कदम अपनी उम्मीद की ओर ...
जिम्मेदारी के बोझों तले दब गए
जवान कंधे और मजबूत होने लगे
समझौता किए अपनी ख्वाइश को
बढ़चले वो कदम अपनो की ख्वाइश पूरी करने को।
न समझा कोई न जाना कोई
इंसान की कुरबानी का यहां अहमियत नहीं।
कभी जिम्मेदारी बन गई तकलीफ
और उतर गई कलम की श्याहि बनकर
कभी जिम्मेदारी उतर गई रूह में
और जिंदगी भर साथ चलपड़ी आखरी सांस तक।
कोई तड़पा रहा ,कोई तरसा रहा
कोई मुस्कुराते चला बेवजह ..तो
कोई नशे की लत से डूबा रहा
जिम्मेदारी की तकलीफ को छुपाने को
इंसान अपनी अपनी जरिआ ढूंढता रहा।
बुढ़ापे की दहलीज पर आ गए
अपनी सुकून को भी कुर्बान करते चले
अपनो की परवरिश की खातिर
बुढ़ापे में भी मजबूर होते चले
अपनी आखिरी सांस तक मजदूरी करते चले।
कभी थकना नहीं ,कभी रुकना नहीं
कभी झुकना नहीं,
अपनी आंसू को दूसरों को दिखाता नहीं ...
वो इंसान है जो मजबूर है, बहुत मजबूत है
अपनी आरज़ू को हर दम पर्दा किए ।
कभी रीढ़ की हड्डी था खानदान का
आज राख बनकर मिट्टी में मिलचुका है ।
कभी अपनों की गले की हड्डी था तू
तेरी कमी आज अपनो को खल रही है ।
मौजूदगी को महसूस करता कोई नहीं
न होने की गम सताती रही
जिम्मेदारी क्या चीज है
जब तक न मिले ....
न समझा कोई
आंखों की नमी को वो ही पढ़ सकता है
जो मजबूर है , और मजबूरी की हालातों से गुजर चुका है।
