....साड़ी....
....साड़ी....
जब मैं नन्ही सी थी ,
और पापा की परी भी थी
मां की पुरानी साड़ी को लपेटे
झूठ मूठ की शादी का खेल खेलती थी।
थोड़ी सी बड़ी अब जो हुई ,
पाठशाला में अब जो जाने लगी
अपनी सहेलियों संग रंगमंच पर
मां की साड़ी पहने नाचने लगी।
थोड़ी सयानी सी अब जो हो गई हूं मैं
आईने के सामने वक्त बिताती हूं मैं
रंग बिरंगे साड़ियां पहनकर
खुद सजती और संवरती हूं मैं ।
कॉलेज में अभी नई नई कदम रख रही हूं मैं
पढ़ाई में भी ज्यादा वक्त बिताती रहती हूं मैं
जब आए नौबत साड़ी पहनने की
अपने आप बड़ी खुशनसीब मानती हूं मैं।
कभी कांजीवरम,कभी बनारसी
कभी लखनोई,कभी संबलपुरी
तरह तरह की साड़ी खरीदने लगी हूं मैं।
अब मैं और भी बड़ी होने लगी हूं
मेरे रिश्ते की बात अभी आने लगी है
लड़के वाले कल शाम को आए थे
और लड़केवालों की तरफ से रिश्ता मंजूर है।
अब मैं थोड़ी सी शर्माने लगी हूं
आईने से आंख मिलने को डरने लगी हूं।
अपनी शादी की खयाल जो आते हैं मन मैं
शादी की जोड़े में खुद को देखने लगी हूं।
अपनी शादी के दिन बहुत रोई थी मैं
ससुराल वालों के लिए मैके से साड़ीयां
लाई थी मैं।
एक युग अब बीतने को आने लगी है
बच्चे अभी बड़े होने लगे है
कुछ शालों में सास बनूंगी मैं
अपनी बहुओं के खातिर खुद साड़ी खरीदूंगी मैं।
वक्त बीतने की थोड़ी भनक न हुई,
काले काले बाल अब पकने लगे हैं
घुटने की दर्द की वजह से,
चलने में थोड़े से तकलीफ होने लगे हैं।
अब मैं कैसे साड़ी पहनूंगी,
इस सोच में थोड़ी सी मायूस हूं में।
