मजबूर नहीं मगरूर हूँ
मजबूर नहीं मगरूर हूँ
रोना नहीं सिखा बस कुछ एहसासों को मन की संदूक में ही दफ़न करती हूँ,
लिखकर कुछ अच्छे अहसास अल्फ़ाज़ों से दगाबाज़ी करती हूँ।
जताती नहीं कभी अपनों के आगे दर्द की कशिश
जूझना ही जब जीवन है तो खुद के भीतर ही खुद से जंग का ऐलान करती हूँ।
ज़िंदगी की तपिश से रंज़िश सही आँसूओं से मेरा राब्ता नहीं,
लबों पर सजी शीत हंसी को अपने वजूद का गहना कहती हूँ।
तो क्या हुआ की लकीरों के आसमान में छेद है,
हौसलों की आँधी तो तेज है, ख़ुमारी के दीये से जीवन में रौशनाई भरती हूँ।
रंग तो गिरगिट की तरह बहुत दिखाए दुनिया ने निराले मुझको भूलाकर,
छोड़ो यार खुद को मैं याद हूँ उस बात का गुमान करती हूँ।
मजबूर नहीं मगरुर हूँ ये बात थोड़ी ऊँची सही,
झिलमिलाता गौहर ना सही पर स्वयं की शोहरत को कभी कम भी नहीं आंकती हूँ।
