मिटे हुए लोग
मिटे हुए लोग
जिनकी भावनाओं
से खिलौने की तरह हरदम खेला गया हो
वो भला किसी की भावनाओं से क्या खेलेंगे
किसलिए खेलेगे और क्यों कर खेलेंगे?
पाएंगे क्या उससे सिवाय जाने पहचाने खाली पन के?!
वो तो भरपूर भरा होगा न पहले से ही उनमें
खेलने को 'कुछ तो 'होना चाहिए न उनमें
जबकि बचा है उसके अंदर सिर्फ शून्य !
जिसका निर्वात निरन्तर उन्हीं की भावना को निगलता
उगलता रहता है!
मिटे हुए लोग,
मिटते रहते हैं खुद में ही, किसी को मिटाया नहीं करते।
न वे उम्मीद भी रखते किसी से,बचा लिए जाने की।
वे बस कोशिश करते हैं,जीते हैं अपनी तरह से,
अपने लिए।