महफिलें और ठेके
महफिलें और ठेके
इस दुनिया में खुशियां है बेचते
दूसरों के दर्द से उन्हें खरीदते
खुशियों की महफिलें हैं सजाते
दुःखों के अपने ठेके चलते।
दिन ढले शाम हैं आते
अपने अन्दर के जानवर को ये संवारते
फिर किसी महफिल में उसे बैठाते
दर्द के ठेकों के खूब जाम हैं पिलाते।
मैं भी बहुत हूँ चाहता
सब जैसा कोई कवच क्यों ना पाता
महफिलों में जाता और खूब पीता
फिर किसी ओर के दर्द को देखता
ओर तुम्हारे तरह ही खूब हंसता।
पर मुझसे ये हो ही न पाता
पता ना कैसे उसके आंसू को हूँ समझता
उसके दर्द को अपनों सा हूँ समझता।