मगरूर है आज आदमी
मगरूर है आज आदमी
सफलता के हिंडोले में उड़ान भरता
इतना मगरूर है आज आदमी,
निज छाया को पहचानने से भी
इंकार कर रहा है आज आदमी।
विवशताओं की तमस में
इतना छिप गया है आज आदमी,
जिम्मेदारियों से अनकहे ही
नाता तोड़ रहा है आज आदमी।
सफलता तो आती-जाती है
अपने तो अपने हैं
अच्छे या बुरे,
क्यों भूल रहा है आज आदमी।
रोशनी जितनी आती जाती है पास
अत्यधिक रोशनी की
तलाश में उतना ही
तड़प रहा है आज आदमी।
सुखी जीवन का मूलमंत्र
निस्वार्थ कर्म किये जा
चाहकर भी नहीं समझ
पा रहा आज आदमी।
जीवन है क्षणभंगुर
शीशे जैसा नाजुक
मृगमरीचिका के पीछे फिर भी
भाग रहा है आज आदमी।
