मेरी महबूबा
मेरी महबूबा
नख से शिख तक खुदा ने,तुझको यूँ तराशा,
पूरी कायनात ही बनी,तेरे श्रृंगार की भाषा;
उजले दिन में गुनगुनाती,धूप सी चटकीली,
ढलती शाम में,टिमटिमाते सितारों सी सजीली,
दूर आसमान में उभरती,इंद्रधनुष सी रंगीली,
टप-टप झरझर बरसती,बारिश की बूंदों सी चमकीली;
गुलशन को महकाती,सुन्दर फूलों सी रुपहली,
कभी लालपीली दिखती अग्नि सी भड़कीली,
रोम रोम खिला देती,हवा के झोंके सी नशीली,
मिठास घोलती जुबां से तुम कुछ ऐसे…..
लगती जैसे रसभरे फलों सी रसीली;
वो झुकी नज़रों में तेरा,सब कुछ कह जाना,
ताम्र रंगत का तेरी...हुआ हर शख्स दीवाना,
अधखुले अधरों से,मुस्कुराती जब भी तुम,
पल भर को को श्वास,कहीं हो जाती गुम;
धरती पर पड़ते...कोमल से तेरे पग,
पायल खनक उठती,जब भरते डग,
वो मदमस्त...कमनीयता भरी चाल,
लचकती कमर तक...घने सुनहरे बाल;
कैसे करूँ बयाँ तेरा रूप ओ मेरी महबूबा,
पूरी कायनात पर हुआ,जैसे तेरा दबदबा,
महज़ लफ़्ज़ों से कैसे हो खूबसूरती बयाँ,
मरहबा...मरहबा/मरहबा...मरहबा!

