मेरी मेहंदी
मेरी मेहंदी
जब नन्ही - नन्ही
हथेलियों पर
कभी माँ मेहँदी लगाया
करती थी,
इतरा-इतरा कर
मैं बाबा को
दिखाया करती थी,
तब बड़े रिझाया करते थे
मेहँदी से रचे
हाथों को देख,
मन-मन ही भरमाया
करते थे माँ-बाबा
दोनों मिलकर,
आज जुड़े हैं सब
मेरी मेहंदी वाली रस्म पर,
एक ओर खुशी है
अपने फर्ज अदा करने की,
तो वहीं मीठी-सी कसक
और भीना-सा दर्द भी है
मेरे बिछोह का,
जगती अँखियों से ख्वाब
पूरा होते देख,
देखो न !
छलक उठी है आँखें
माँ-बाबा की !