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रिपुदमन झा "पिनाकी"

Action Classics Fantasy

4.5  

रिपुदमन झा "पिनाकी"

Action Classics Fantasy

मेरी मां

मेरी मां

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आजकल मेरी मां

रूठने लगी है बच्चों की तरह

न किसी से कुछ कहना

न सुनना किसी की

एक ज़रा सी बात पर


बैठ जाती है नाराज़ हो कर

अपने कमरे में लगी बिस्तर पर

चुपचाप, गुमसुम सी।

बातों ही बातों में


जाने किस बात का बुरा लगता है

मगर लगा तो है,

चेहरे से पता चलता है।


चेहरे पर भाव लिए उदासी की

न मुस्कान न खुशगंवारी ही

अकेली, चुपचाप, खोई-खोई

वैसे, करती है अपने सारे काम दिनचर्या वाले


हर सुबह आंगन में झाड़ू लगाना

फूल, तुलसीदल, दूब तोड़ना

और धोना बर्तन पूजा वाले

पूजा-पाठ, भजन, आरती सब करती है।


सुबह-शाम की चाय है पीती

खाना भी समय पर ही है खाती

कुछ पूछो तो....

सब ठीक

है कहती है


लेकिन मुझसे पहले की तरह

बात नहीं करती है।

खाने की टेबल पर भी

सर झुकाए एक-एक कौर यूं खाती है

जैसे खाने पर कोई एहसान जताती है


खाने के स्वाद पर.. 

सब अच्छा है बताती है।

हर सवाल पर छोटा-सा जवाब देती है

मेरी सहनशक्ति भी उसके आगे घुटने टेक देती है

मनाना पड़ता है मिन्नतें कर कर

मांगनी पड़ती है माफ़ी

हाथ पांव जोड़ कर।


जानें यह ज़िद है बुजुर्गो वाली

या...उम्र का ढलता पड़ाव

बचपने की ओर मोड़ रहा है।


कहते हैं... बच्चे और बुजुर्ग

दोनों एक जैसे ही होते हैं

दोनों ही ममता और दुलार के भूखे होते हैं

चाहिए सेवा दोनों को ही एक सी

रखना पड़ता है ध्यान दोनों का एक जैसा ही।


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