मेरी कलम
मेरी कलम
मेरी कलम काग़ज़ पर राग है गाती,
मैं गुनगुनाऊंँ तो संग मेरे गुनगुनाती,
झट से पढ़कर मेरे मन के भावों को,
पन्नों पर मोती की तरह बिखेर देती।
साथ देती है कलम मेरे लफ़्ज़ों का,
कद्र करती है सदा मेरे जज़्बातों का,
मैं दर्द बयां करूं तो रोती है कलम,
खुशी में पैगाम लिखती खुशियों का।
कभी प्रीत तो कभी मीत बन जाती है,
शब्दों की एक सुंदर माला पिरोती है,
खुद बिखर कर काग़ज़ के मैदान पर,
एक सुंदर कविता का सृजन करती है।
कोई साथ न दे पर कलम साथ देती है,
मन की तरंगों को साकार रूप देती है,
पग -पग पर कलम मेरी जुबां बनकर,
अंतर्द्वंद की उथल-पुथल शांत करती है।
