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प्रभात मिश्र

Tragedy

4.7  

प्रभात मिश्र

Tragedy

मेरे भीतर

मेरे भीतर

1 min
273


मेरे भीतर कही दूर

अब भी इक बच्चा बसता हैं

जो खो देने से डरता है

जो एकाकीपन से डरता है


जिसे भय हैं तिरस्कृत होने का

जिसे भय हैं सब खो देने का

जो आलोचना से डरता है 

प्रशंसा के लिये मचलता हैं


मेरे भीतर कही दूर

अब भी इक बच्चा बसता हैं

देखे तो है तुमने मेरे 

पशु और मानवी दोनों रुप

क्या कभी पशु मेरे भीतर का

मेरी मानवता पर हँसता हैं 


यह सच हैं मै निर्दोष नही

तम तो मुझमें भी बसता हैं

पर मेरे भीतर कही दूर

अब भी इक बच्चा बसता हैं


जो नही जानता लोक नीति

जिसको होती हैं सहज प्रीति

जो बस भाव निखरता हैं

शब्दों को कहाँ समझता है

सच मेरे भीतर कही दूर

अब भी इक बच्चा बसता हैं।


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