एक क़ता...
एक क़ता...
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एक शोर सा हर-सू बरपा है, कोई नजात दिखाई देती नहीं
सूरत-ए-हाल यूँ है... मुझको अपनी सदा सुनाई देती नहीं !
बेताबियाँ शायद मुक़द्दर है, भटकना गोया तक़दीर मेरी
मंज़िल तो नज़र की ज़द में है, कोई राह सुझाई देती नहीं !
जिस्म कुछ इतना नाज़ुक है, बेहाल-निढाल हुआ जाता है
लहू से अगरचे शराबोर रहे...कभी रूह दुहाई देती नहीं !
*हर-सू: हर तरफ़; बरपा: होना; नजात: मुक्ति; सूरत-ए-हाल: वर्तमान स्थिति; सदा: आवाज़; बेताबी: बेचैनी; गोया: जैसे; ज़द: पहुँच; अगरचे: यद्यपि; शराबोर: भीगा हुआ; दुहाई: फरियाद करना*