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मेरा चाँद

मेरा चाँद

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मैं और मेरा चाँद ,

 आधा चाँद ,रात आधी ,

आधी नीदं के अधरों में 

 गुपचुप से कुछ गुमसुम से 

रोज इक नया फसाना गढ़ते है । 

खोकर आग़ोश में बादलों की 

रोज़ फिर मुझको छलता है तू ।

घटता है तू -गढ़ता भी तू है ,

चाँद ...

फिर से इक नई कहानी में ,

पलता है तू । 

ए चाँद अन्धेरी रातों में पुरज़ोर हँसता है

तू चमकता है ,बरसता है नूर तेरा

होता है तुममें फिर , तस्वुरे- यार मेरा 

शामिल है अश्को की रूसवाइयो में भी 

मेरे हर लम्हे में ,हँसने -रोने में 

पाने में और पाकर खोने में ।

काली स्याह रातों में जब ,

होती है रौशन तेरी चाँदनी 

दमकती है ,बहकती है रौनक तेरी ,

तारों के आलिंगन में .ये इठलाहट तेरी ।

 कर जाती है ....

 फिर से बेचैन 

  “ यूँ बेचैन मुझको “

 जब भी चादँ मिरा , 

      मुझको याद आता है ।।

    यूँ बे -वजह .. 

तू मत मुस्कुरा - ए चाँद ,

 जैसे , कोई खिलाफत कर रहा है ।

यूँ ही बना कर तस्वीर उसकी मैं , 

     चाँद पर टाँग आया हूँ 

पूछते है लोग। , फिर से - क्यूँ 

     मैं चाँद से मोहब्बत कर आया हूँ ।। 



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