किसान
किसान


मुझे लिखो , मैं कटी हुई उँगलियाँ हूँ ,
जिसे भूख ने खा लिया है ....
ज़िन्दगी कट जाती है जिसकी ,
खुरपी और कुदाल से ...
भूखा पेट , अब तक , खेती से भरा ही नहीं ।
महज़ नाम के ही ज़मींदार है , किसान है ।
घर का खर्च भी खेती से ,
अब तक तो चला नही .....
जन्म मिट्टी से लेकर ,
दफ़न हो जाते हैं थाल में,
जवानी झुलस जाती है सारी ,
पिस कोल्हू की चक्की,
धूप ,गर्मी ,ग़रीबी और बदहाल में ।
भूखे मरते हैं हम ....
हर बार बाढ़ और अकाल में,
लगाते हैं रो रो कर गुहार,
अन्धी , बहरी सरकार से ,
बेबस हो फिर लगा लेते हैं फाँसी,
तंग हो जाये जब इस हाल में ।
देश का अन्नदाता, गहन संकट से है , जूझ रहा ,
भयानक आपदा से अब टूट रहा ,
वायरस ने है विपदा में डाला ...
फसलें सड़ रही है सारी इनकी ....
अब इस कोरोना के भंयकर जाल में ।
पक गई है फसलें सारी , धरती भी लहराई है ,
बेमौसम बरसात देखो , बनके तबाही आई है ,
लाकडाउन में किसान की क़िस्मत भी हो गई है लाक ,
बेबस , लाचार , बेहाल हो गया है संकट के इस कोहराम में ।
उठाया है क़र्ज़ हमने , रक्त की हर बूंद पर ,
फिर भी ये क़र्ज़ कभी हटता भी नहीं ,
घटता भी नहीं ,
घुटता है दम अब , शोषण की इस भीड़ में
और मुश्किलों का बादल है कि छँटता भी नहीं ,
महज़ हम नाम के ही हम ज़मींदार है ,
किसान है .....
घर का ख़र्च तक तो , खेती से चलता ही नहीं ।