स्त्री
स्त्री
भर दिया था ज़ख़्म मेरा ,
वापिस फिर क्यूँ ज़ख़्मों को खोल रहे हो
देकर आधी ख़ुशियाँ मेरी क्यूँ मेरा
जहाँ अब फिर छीन रहे हो
कठपुतली बन नाच रही हूँ
तेरी बनाई तदबीरो पे
फिर क्यूँ मेरे हिस्से की पूरी
ख़ुशी देना भूल जाते हो
ख़ुश होती हूँ पूरा तो कहीं बीच में
इक दर्द का नश्तर चुभो देते हो
मुझसे तुम भी क्या .. जलते हो भगवान ?
तो क्या कहूँ ...... ?
जब सब तुम्हारी मर्ज़ी से होता है तो
फिर मेरी हर ख़ुशी अधूरी क्यूँ ...
अब ... अभी से ...
मुझे मेरे ख़ालीपन का पूरा सामान चाहिये
मुझे मेरा पूरा आसमान चाहिये
अ रब तुझसे भी और तेरे बन्दों से भी अपना
हाँ मेरी अपनी धरती और मेरा
अपना पूरा जहान चाहिये।