मधुरिम मृदुतर बरसते रंग
मधुरिम मृदुतर बरसते रंग
हर वह दिन उत्सव ही है होता,
जब आती मन में मृदुल उमंग।
सबकी रक्षा के बंधन से बंधे हों,
सब सबके कल्याण भाव के संग।
ईर्ष्या का तो नामोनिशान नहीं हो,
अंतर्मन से सभी रहें संग-संग।
हम सबके अपने ही सब होते,
तब मधुरिम मृदुतर बरसते रंग।
निज कुटुम्ब ही सकल जगत है,
पाएं स्नेह सबसे लुटाकर प्यार।
सब निज देश परदेश भी कहीं न,
न कोई तेरे-मेरे की कहीं तकरार।
लगता ऐसा बस कल्पना में केवल,
हो अगर ये प्यार तो मिटें सब जंग।
हम सबके अपने ही सब होते,
तब मधुरिम मृदुतर बरसते रंग।
प्यार सभी को सब करते निज हम,
सब एक दूजे का करते पूरा सम्मान।
ममता-त्याग की मूर्ति सब ही होते,
अहंकार का न होता कहीं भी स्थान।
एक ही पिता की जब हैं हम संतति,
तो अपना ध्येय रहना है प्यार के संग।
हम सबके अपने ही सब होते,
तब मधुरिम मृदुतर बरसते रंग।
है प्रकृति हमारी हम सबकी ही माता,
इसके संरक्षण में ही है हमारी रक्षा।
जड़-चेतन सब ही इसके हैं अवयव,
हमारे संस्कारों की है यही सदा शिक्षा।
निर्भरता है सबकी एक दूजे पर ही,
एक की पीड़ा करेगी शेष को भी तंग।
हम सबके अपने ही सब होते,
तब मधुरिम मृदुतर बरसते रंग।
हम सब ही मिलकर खुशी मनाएं,
एक-दूजे के मिल-जुल बांटें ग़म।
सबकी ख़ुशी में सदा हम सुख पाएं,
पर-पीड़ा में सबकी आंख हो नम।
जला दीप हरें तिमिर हर पथ का,
हर जीवन में बरसे खुशी के रंग।
हम सबके अपने ही सब होते,
तब मधुरिम मृदुतर बरसते रंग!