मौसम
मौसम
काश !
मैं मौसम होता
और मौसम की तरह
ही बेइमान होता !
ढूँढता तुझे छूने के
नये-नये तौर तरीके,
फिर बन जाता मैं
कभी ऐसा मौसम कि
तू अपना कम से कम
अंग ढ़के और देख
तेरे अंगो को मैं
अपने यौवन को तपाता
मेरी गर्मी से तेरे
अंगों का पानी भाप
बन मुझ तक आता !
फिर बन जाता मैं
बरखा की बदली
घनघोर बरसता जोर-जोर
धोता मैं तेरे रहस्यमयी
अंगों को जुड़ता मैं
उनसे बार-बार !
कभी बन जाता मैं
जाड़े की ठड़क
बन ओस तेरे ऊनी
अंगों में गरमाता फिर
कपकपी का एहसास
कराके तेरे होंठो से,
मैं निकल जाता
फिर बन जाता मैं
कभी आँधी तेरे काले
केशों में लहराता
बाँध ना पाती
अपने केशों को तू
छू उनको नभ में
मैं रजनीगंधा की भीनी
खुशबू को फैलाता !
जान के अपने स्त्रियोंचित को
तू चाहने लगती ही मुझको
फिर तुझसे मिलने को मैं
अपना रूप बदलता रहता !
काश !
मैं मौसम होता
और मौसम की तरह
ही बेईमान होता !

