मैंने पूछा चांद से
मैंने पूछा चांद से
मैंने पूछा चांद से , क्यों मेरी तरह तू भी
हर वक्त खामोशी की चादर ओढ़े रहता है
बरसा कर सारे जग पर शीतलता
खुद भीतर ही भीतर आंसू पीता है
शायद जलता है विरहा की अग्नि में तू भी
तभी तेरे उजले मुखड़े पर ये काला टीका है
लगता है बिछड़ गया तू भी अपने महबूब से
इसलिए उसकी खोज में रातभर भटकता रहता है
भोर की बेला ने हमारे मौन संवाद को विराम दिया
बंद कर खिड़की मैं लेट गई, चांद अपनी प्रियतमा
की खोज में, दिन के नये सफर पर चल दिया।