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dr. kamlesh mishra

Abstract

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dr. kamlesh mishra

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मैंने आहुति बनकर देखा है

मैंने आहुति बनकर देखा है

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कुछ नहीं है तेरा जीवन,

वस जलते कण की रेखा है

मैंने आहुुति बनकर देखा है ।


संसार है विष का प्याला,

इसको पीते जाना है।

विष भी यहां शेष नहीं,

बस नील कंठ की रेखा है।

मैंने आहुुति बनकर देखा है।


संसार तो एक सपना है,

आँख खुुली तो नहीं कोई अपना है।

कोरक में लगी काजल की,

बस एक काली रेखा है।

मैंने आहुुति बनकर देखा है।


पत्थर की प्रतिमा पर ये,

कैसा नेह का घेरा है।

चेतनता नहीं विलसती इसमें,

तेरे भावों की रेखा है।

मैंने आहुुति बनकर.देखा है।


भाई बन्धु रिश्ते नाते,

यह सब  कर्मो के बन्दे है।

वक्त बीत जाने पर बनते नये परिन्दें है,

बस यही कर्मो का लेखा है।

मैंने आहुुति बनकर देखा है।


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