मैं
मैं
खुद में ही हर घड़ी बनती बिगड़ती भी मैं
खुद में ही हर समय गिरती सम्भलती भी मैं।
शाम के नशे सी चढ़ती उतरती भी मैं
खुद अपने आप में ही चलती ठहरती भी मैं।
खुद को ही डराती खुद से ही डरती भी मैं
सन्नाटों में खुद से ही बातें करती भी मैं।
खुद को आइने में देखकर सँवरती भी मैं
उसी के सामने फिर आँख मलती भी मैं।
दिल से सही तो मन की हर गलती भी मैं
यूँ ठंडी रात की सरगोशियों में पिघलती भी मैं।
दुनिया के रंग देखकर रूठती बहलती भी मैं
सूनी राह पर अजनबी यारों के संग चलती भी मैं।
वो तितलियों के साथ पल-पल मचलती भी मैं
वो उस खुदा की नायाब गलती भी मैं।