मैं था, मैं नहीं हूँ
मैं था, मैं नहीं हूँ
मेरा होना भी,
ना होने का एक भरम है।
मैं हूँ भी, और नहीं भी हूँ,
मानो धुंध में खोई कोई परछाईं।
यह हवा कितनी सुहानी है,
पेड़ों से गिरते पत्तों की सरसराहट,
बारिश की बूंदों का संगीत,
फिर भी मेरा मन—
सूखा, उजाड़, और उदास।
दुनिया कितनी खूबसूरत है—
पहाड़ों की गोद, नदियों की हँसी,
फूलों की महक, बच्चों की खिलखिलाहट।
पर मैं जानता हूँ—
मुझे सब छोड़कर जाना है,
उन अपनों से भी बिछड़ना है
जिन्होंने मेरी रूह को जिया।
मैं कभी आया ही नहीं,
फिर भी जा रहा हूँ।
जैसे कोई अधूरी धुन
आधी रात में थम जाए।
दिल की गहराइयों में एक खालीपन है,
जहाँ दर्द अपना घर बना चुका है।
इश्क़ जो किया था कभी—
अब वही रूह को चीरता है,
हर सांस में टीस भरता है।
मैं कैद नहीं,
पर मुक्त भी नहीं।
अपने ही अस्तित्व की जंजीरों में
जकड़ा हुआ हूँ।
और जब भी मैं खुद को
अपने भीतर देखता हूँ,
तो तड़प उठता हूँ—
क्योंकि यह सफ़र
शून्य से आया है
और शून्य में ही मिट जाएगा।
